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कविता

रोशनी की आवाज

प्रेमशंकर मिश्र


एक देहाती
नींम के चौरे से उठी
एक दुधमुँही रोशनी की कँपती आवाज
गली-कूचे
ठाँप-ठाँव
खिड़की दरवाजे से होती हुई
सारे गाँव

एक लौ को लिए
जला गई करोड़ों दिया;
आज की अमावस में
कितना जागरण है
हर छोटा बड़ा
अपने-अपने में मगन है।

ऊपर
फरकती है कँगूरों की मूठें
नीचे
मुन्‍ने की माँ
रचाती है घरौंदे
जिसे
जब मन चाहे
कोई खेले कोई रौंदे।

रोशनी के
इस समरस तार में
बीती बरसातों की
इस समतल गड्ढा कितना टीला है
आग के त्‍योहार का भी नियम
अभी ढीला है।

नेह का एतबार
दूर के छज्‍जे से
एक खनकती छाय
क्रम-क्रम
रोपती है नेह का एतबार
पास का पोखर
जिसे काँप काँप झेलता है।

बिना चाँद का

वहशी आवारा आसमान
इस मजबूरी पर
रह रह कर
खिलखिलाता है।

लोगबाग मेले में हैं
अकेले
इस नन्हें से दिए में
पूरे वरस का अंधकार समेटे
भर अँजुरी धीरज जलाए
मैं
आज फिर|
तुम्‍हें आगोरता हूँ


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